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ना दृश्य है, ना द्रष्टा है, बस दृष्टि है

व्यक्ति इस संसार में हमेशा कुछ खोजता रहता है। अभी अपनी जो पहचान है उसके अलावा कुछ बनने का प्रयास हमेशा करता रहता है। जो स्वयं में कुछ नहीं है, कभी कुछ हो नहीं सकता। लेकिन यहाँ कुछ बनने का प्रयास हमेशा रहता है। मैं ने जीव तो पहले ही अपने को मान लिया गया है, अब आत्मन बन जाऊं या ब्रह्म हो जाऊं यह भी प्रयास रहता है। क्योंकि अब हम आद्यात्मिक हो गए तो कुछ विशेष तो होना ही है। अब कोई कहता है की तुम शिव हो या ब्रह्म हो, तब यह जानकर हम शिव भी बनना चाहते है। फिर कोई कहता है तुम पहले से ही शिव हो तो यह बात भी समझने की लिए बुद्धि का प्रयास हमेशा होता है। अब इसके लिए ध्यान के प्रयोग शुरू होते हैं। क्या ध्यान जो स्वयं ध्यान बन गया है ध्यान कर सकता है?

तो फिर हम ध्यान की भी एक धारणा बना लेते है। क्या ध्यान अनेक हो सकते है। ध्यान एक विधि नहीं है, यह स्वयं की जागरूकता है। लकिन क्यंकि हमें उसकी भी एक छवि बना ली है। फिर हम ध्यान की बनाई हुई छवि पर प्रयास करने लगते है। बुद्धि ही है जो इसको जान रही है की ध्यान किया जा रहा है। क्या बिना ध्यान के ध्यान नहीं हो रहा ? क्या ध्यान निरंतर नहीं है? लकिन प्रश्न है कि किस पर और इसको करने वाला कौन है? अब यहाँ यह जानना कि मैं ध्यान कर रहा हूँ मैं और ध्यान दो हो गए, और ध्यान  विचार बन गया।

क्या मैं है ? तो फिर मैं जो ध्यान कर रहा है वह भी कैसे हो सकता है। क्या यह किर्या हो रही है ? मैंने यह जाना हुआ है की मैं जीव हूँ , या मैंने यह जाना कि मैं जीव नहीं हूँ, क्या मैं जानने और न जानने मैं विभाजित नहीं हो गया ?  मैं और मेरे से कुछ अलग जिसे मैं नहीं जनता। मैं  कुछ नहीं है ,न जानना और न ना जानना। वह है ही नहीं , जब तक जानना घटित नहीं होता। हूँ। क्या मैं और जानना दोनों भिन्न है या मैं ही जानना है ? क्या दोनों को अलग किया जा सकता है ? कुछ भी जानना और न जानना दोनों एक ही नहीं ? क्या यह दोनों मैं ही नहीं ? क्या मैं जानने और न जानने मैं विभाजित नहीं हो गया ? कि मैं और मेरे से कुछ अलग जिसे मैं नहीं जनता।  मैं कुछ नहीं न जानना और न ना जानना। वह है ही नहीं जब तक जानना घटित नहीं होता। 

मेरे देखने से देखना घटित हो रहा है अगर मैं ना देखूं तो क्या दृश्य होगा ? और अगर मैं कहूं कि मैं नहीं हूँ तो क्या दृश्य और दृष्टि होगी ?

अगर सारे अनुभव अनुभवकर्ता को हो रहे है और अनुभवकर्ता है ही नहीं तो कैसे कहेंगे कि अनुभव भी है ? या अगर कहें कि मैं ही जानने वाला , मैं ही देखने वाला और सब मेरे से ही प्रकाशित है तो क्या मैं ही बस नहीं। और किसी कि स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं। तो क्या मैं नहीं तो कुछ नहीं और मैं हूँ तो सब है। सब है यह बोलने वाला भी मैं ही नहीं बन गया है।

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