माया वह शक्ति है जो है नहीं केवल प्रतीत होती है, और जिसको प्रतीत होती है वह भी माया ही है। अस्तित्व का होना मात्र है शून्यता। जब यहाँ आभासित परिवर्तन होता है , जो एक तरह की गति होना का भ्रम पैदा करता है। तो जानना और उसके होना का अहसास प्रतीत होने लगता है। यह अपने को होने में देखता है और दूसरा इसके अनेक रूप प्रकट होते हैं जो इनको खुद ही बनता है और खुद ही देखता भी है। यह अस्तित्व अपने को होने के रूप में सदैव विधमान पता है। लकिन यहाँ यह अपना होना न जान कर अपनी कृति के साथ खुद को जोग कर देखता है और उसके होने का ज्ञान संयोजित करता है। जानने का गुण एक प्रकिर्या द्वारा प्रकट होता है जहाँ यह इसको अनेक व्याख्या देती है।
बुद्धि ही अस्तित्व की व्याख्या शून्यता या होने में करती है। क्योंकि उसका बोध इन्द्रियों द्वारा होता है जो की केवल आभाषित जगत का संज्ञान ही ले सकती है। तो यहाँ बुद्धि की सीमित क्षमता हो जाती है। और सारे अनुभवों को परिवर्तनशील देखती है और फिर वह विलुप्त हो जाते हैं उस स्वपन की तरह तो यह जाना जाता है की शून्यता ही तत्त्व है।
माया – अस्तित्व की सृजनात्मक शक्ति
